हिमालय की नदियों में गाद भर रही है:सुरेश भाई
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-हिमालय दिवस पर विशेष-
हिमालयी नदियां बहुत संवेदनशील हो गई है।यहां की वर्षापोषित और हिमपोषित नदियों में बाढ़ एवं भूस्खलन का खतरा दिनों-दिन बढ़ रहा है।चौड़ी पत्ती के जंगल 5 हजार फीट से ऊपर 7 हजार फीट तक चले गए हैं।जिससे नदियों की जैव विविधता संकट में पड़ गई है।यहां पर बांज, बुरांश,खरसू,मौरु कैल,देवदार जैसी अनेकों वन प्रजातियां दुर्लभ होती जा रही है।जिसके कारण वर्षा जल को समेटने की ताकत भी यहां की धरती में कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है।इसलिए बारिश के समय यहां के पहाड़ बहुत जल्दी नीचे खिसकने लगे हैं। इससे निकलने वाला मलवा जिसमें मिट्टी,पत्थर,कंकण है। यह गाद के रूप में नदियों के दोनों किनारो पर जमा हो रहा है।जिससे नदियों के पास की आबादी बर्बादी के कगार पर खड़े हैं।गाद जमा होने का दूसरा कारण है कि विकास के नाम पर नदियों के दोनों ओर भारी निर्माण कार्य हो रहे हैं और इनसे निकलने वाला मलवा सीधे नदियों में उड़ेला जा रहा है।उदाहरण है कि हिमालय राज्यों की सरकारें अपने यहां पर्यटन व ऊर्जा प्रदेश के नाम पर चौड़ी सड़कें,बहुमंजिलें इमारतें, टनल आधारित परियोजनाओं का बड़े पैमाने पर निर्माण करवा रही है।केवल उत्तराखंड में ही 600 बांध और लगभग 900 किलोमीटर ऑल वेदर रोड है जिसकी चौड़ाई 12-24 मीटर तक है जो हिमालय की भौगोलिक संरचना के विपरीत है।इस तरह की चौड़ी सड़क हिमालय के ढालदार पहाड़ों को बेतरतीब ढंग से काटकर बनायी जा रही है। इसी तरह पूरे हिमालय क्षेत्र में लगभग एक हजार से अधिक छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं और सड़कों का बड़ी मात्रा में चौड़ीकरण किया जा रहा है।जिसमें हिमालय की संवेदनशीलता का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा गया है।इस तरह के निर्माण कार्यों में लाखों पेड़ भी काटे जा रहे हैं।निर्माण के दौरान निकलकर आ रहा लाखों टन मलवा सीधे जल स्रोतों,चारागाहों,बस्तियां के बीच मे जा रहा है।बरसात के समय में यह मलवा भारी बाढ़ का रूप ले लेता है।लेकिन शेष मौसम में जब नदियों का पानी कम हो जाता है तो मलवे के ढेर रेगिस्तान के रूप में दिखाई देते हैं।उदाहरण है कि सन् 2013 में केदारनाथ आपदा के समय नदियों के किनारे जमा किए गए टनों मलवा ही भयानक बाढ़ का कारण बना था जो हजारों लोगों की जान का खतरा बना है।फरवरी 2021 में भी चमोली जिले के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित रैणी गांव के पास ऋषि गंगा में ग्लेशियर टूटने से आई बाढ़ में ऋषि गंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट और इसके आगे तपोवन विष्णु गाड़ परियोजना की टनल में भी मलवा भर गया था।जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गये थे।सन् 2023 में उत्तराखंड और हिमाचल की विनाशकारी आपदा में सैकड़ो लोगों की जाने चली गई हैं। अनेकों स्थान पर बहुमंजलि इमारतें भर भराकर गिरती नजर आई।पर्यटकों के पसंदीदा शहर शिमला,चंबा,जोशीमठ, कुल्लू जैसे दर्जनों शहरों में भूधंसाव हो रहा है।जिसमें लगभग 15 हजार करोड़ रुपए के बराबर की संपत्ति को नुकसान हुआ है।बाढ़ व भूस्खलन के कारण नदियों में गाद जमा होने की दर हिमालय से कम होती इसलिए भी नहीं दिखाई दे रही है कि यहां पर पिछले 33वर्षों में लगभग 40 बार छोटे-बड़े भूकंप आ चुके हैं।जिससे यहां की धरती लगातार कांपती रहती है।ऊंचे और ढालदार पहाड़ों पर दरारें पड़ रही है। यही दरारें बरसात के समय भूस्खलन पैदा करती है।इसकी संवेदनशीलता तब और अधिक बढ़ जाती है जब पहाड़ों की भौगोलिक संरचना को ध्यान में न रखकर बड़े निर्माण कार्यों से अधिक मलवा निकाल कर जल स्रोतों में गिराया जाता है। इसके कारण हिमालय की छोटी-बड़ी नदियां गाद से भरने लगी है।भागीरथी नदी के उद्गम गौमुख ग्लेशियर के आसपास भी 2017 से कुछ ऐसी हलचलें दिखायी दे रही है कि वहां भी मलवे के ढेर खड़े हैं। अतःहिमालय के ऊपरी इलाकों में मानवीय गतिविधियां बढ़ने से ग्लेशियर प्रभावित हो रहे हैं।गंगा के उद्गम क्षेत्र में 2010 से लगातार आ रही बाढ़ के कारण मनेरी भाली परियोजनाएं प्रथम व द्वितीय और इसके आगे टिहरी बांध के जलाशय में बड़ी मात्रा में गाद भर रहा है।जिसका वैज्ञानिक अध्ययन होना आवश्यक है अलकनंदा,मंदाकिनी,यमुना,काली,रामगंगा आदि नदियों पर बने बांध व बैराज में भी गाद अधिक मात्रा में जमा हो रही है।इससे भविष्य में हिमालय की नदियां उद्गम में ही रेगिस्तान के रूप में नजर आ सकती है।वैज्ञानिक इस पर चिंता जाता चुके हैं कि हिमालय में हो रहे निर्माण कार्यों में कहीं भी आपदा का सामना करने वाली तकनीकी का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।यही स्थिति पहाड़ों में रेल लाइनों के निर्माण से भी पैदा हो रही है।इसमें कहीं भी मलवा डंपिंग की पुख्ता व्यवस्था नहीं दिखाई दे रही है। अधिकांश निर्माण कंपनियां अपने हिसाब से पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट तैयार कर देती है।इस बारे में ऊपरी अदालतों में कई याचिकाएं बिचाराधीन है।प्रकृति के द्वारा भेंट की गई नदियों की इस बदहाली को चुपचाप सहेंगे तो हिमालय टूटकर धीरे-धीरे गाद में तब्दील हो सकता है।यह खतरा जितना हिमालय के लिए है उतना ही मैदानी क्षेत्र के लिए भी है।गंगा के प्रवाह क्षेत्र में तो फरक्का बैराज में जमा हो रही गाद बिहार और पश्चिम बंगाल के लिए खतरा पैदा कर रही है।नदियों में हो रहे इस बदलाव के कारण जलचर समाप्त हो रहे हैं।मछुआरे भी गाद के बीच नदी को ढूंढ रहे हैं।ऐसी स्थिति में नदियों की जल राशि घट रही है।लगातार बढ़ रहे प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता बहुत खराब हो चुकी है।निश्चित ही वैश्विक तापमान के कारण भी भविष्य में बाढ़ और भूस्खलन के खतरे कम होने वाले नहीं है।अच्छा हो कि मानव निर्मित विकास को संयमित तरीके से नदियों के किनारों की संवेदनशीलता को देखकर सावधानी बरती जाए। इसका सबसे पहला उपाय है कि जैव विविधता का संरक्षण हो।दुर्लभ वन प्रजाति के वनो के व्यावसायिक दोहन पर रोक लगे।नदी के बहाव को अवरुद्ध करने वाली योजनाओं पर अंकुश लगे।छोटी पन बिजली का विकास हो।कृषि एवं चारागाह योग्य जमीन को बचाने और छोटे एवं सीमांत किसानों की आजीविका हेतु भूमि वितरण की मांग को पूरा करने के लिए सख्त भू-कानून बने। बहुमंजिले इमारतों के निर्माण पर रोक लगे।पर्यटन के स्थान पर तीर्थाटन को बढ़ावा मिले और इसके हिसाब से तीर्थ स्थलों तक पहुंचने वाले लोगों को मजबूत और टिकाऊ सड़क उपलब्ध कराने के लिए बड़े निर्माण कार्यों को रोकना बहुत जरूरी है।विकास के नाम पर हिमालय की भौगोलिक संरचना को ध्यान में रखकर छोटी-छोटी संरचनाओं का निर्माण हो जिसमें लोग सुरक्षित रहकर जीवन जी सके।ताकि हिमालय में कम छेड़छाड़ हो और यहां से बहकर जा रही अंधाधुध मिट्टी के कारण नदियों में जमा हो रही गाद को कम किया जा सकता है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है)